१.
आज से लगभग २००० वर्ष पहले
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन श्रुत पंचमी पर्व की स्थापना हुई जब षटखण्डागम शास्त्र
की रचना पूर्ण हुई थी। धवला शास्त्र के अनुसार आचार्य धरसेन ने श्रुत के विच्छेद
हो जाने के भय से दो साधुओं को श्रुत का ज्ञान दिया था। वे आचार्य भूतबली और पुष्पदंत
थे जिन्होंने ३५००० सूत्र प्रमाण षटखण्डागम की रचना पूर्ण की । इसी शास्त्र के ५
खण्डों की टीका आचार्य वीरसेन ने ई० ८१६ में पूरी की जो ७२००० गाथा प्रमाण है और
आज १६ पुस्तकों में उपलब्ध है ।
२.
इसी ग्रन्थ और जयधवला ग्रंथ
के पठन को सरल करने के लिये आचार्य नेमीचंद्र ने चामुण्डराय के कहने पर गोम्मटसार
की रचना वि०सं० १०४० में की ।
३.
गोम्मटसार की कर्नाटक लिपी
में टीका केशववर्णीजी ने ई०१३५९ में लिखी। पंडित टोडरमलजी ने कन्नड़ भाषा सीखकर
इसकी ढूँढारी भाषा में टीका बनाई जिसका नाम सम्यकज्ञान चंद्रिका है जिसकी रचना वि०स०
१८२० में हुई ।
४.
पंडित टोडरमलजी
को धवला शास्त्र पढ़ने नहीं मिला, उन्हें सिर्फ़ गोम्मटसार ही प्राप्त हुआ था।
उन्होंने धवला की प्रति प्राप्त करने के लिये अपने आदमियों का दल मूलबिद्री भेजा
था जिन्हें ग्रन्थ के दर्शन तो हुए पर प्राप्ति नहीं हुई। एक आदमी की इस यात्रा
में मृत्यु भी हो गई । किंतु यदि उन्होने सम्यकज्ञान चंद्रिका ना लिखी होती तो
शायद आज लोगों को धवला शास्त्र का अर्थ भी समझ नहीं आता।
५.
धवला ग्रथों की
सुरक्षा मूलबिद्री के मंदिर में की गयी थी जो ताड़ पत्रों पर लिखी हुई थी, परंतु
उसको पढ़ने का चलन नहीं था। न कोई समझने वाला ही बचा था। केवल दर्शन और पूजा होती
थी। वैसे यह भी सत्य है कि इतनी श्रध्दा के साथ रखने से ही यह ग्रंथ सुरक्षित रह
सके।
६.
हमारे सौभाग्य से
अनेक आचार्यों और विद्वानों के प्रयास से लगभग ई०१९४० में इन ग्रंथों को पुस्तकाकार किया गया। इसके बाद से धवला
जयधवला आदि ग्रंथ जनसाधारण के लिये उपलब्ध हुए। जो शास्त्र केवल नाम से ही जाने
जाते थे और पूजे जाते थे, आज हम उनको न केवल पढ़ ही सकते हैं, अपितु उनको समझ भी
सकते हैं। फिर भी यदि हम उनका लाभ ना उठायें तो हम से अधिक दुर्भाग्यशाली और कौन
होगा ?
७.
जैन समाज में
श्रुत का बहुत बड़ा महत्व है। चार दानों में शास्त्र दान विशिष्ट माना जाता है।
शायद इसी कारण से ग्रंथों की सुरक्षा भी हुई क्योंकि पहले मुनियों को ग्रंथ की
प्रतिलिपी कराकर शास्त्र दान करते थे जो उसे पढ़कर मंदिरों में सुरक्षित रख देते
थे । यही कारण है कि आज हम २००० वर्ष प्राचीन ग्रंथों को देख पा रहे हैं।
८.
दिगम्बर परम्परा के अनुसार
श्रुतज्ञान १२ अंग प्रमाण है जिसके १२वें अंग दृष्टिवाद का केवल एक अंश ही आज
विद्यमान है । भगवान महावीर के बाद लगभग ५०० वर्ष तक तो श्रुतज्ञान की मुखाग्र रूप
से सुरक्षा हुई जो मुनियों की शिष्य परम्परा से प्रचलित रही। बाद में चूँकि धीरे
धीरे स्मृति क्षीण पड़ती गई, इन ग्रंथों का लोप होता गया । य़हाँ तक कि आचार्य
धरसेन के समय इतना सूक्ष्म ही रह गया था ।
९.
इनके अलावा आचार्य
कुंदकुंद, आचार्य गुणधर आदि ने भी स्वतंत्र रूप से ग्रंथों की रचना की जो शिष्य
परम्परा से प्राप्त हुए।
१०.
अधिकतर ग्रंथों की रचना
मुनियों ने की तथा अनेक पंडितों ने टीकाएँ लिख कर शास्त्र भण्डार को और समृध्द
किया।
११.
मूल ग्रन्थों के बाद के ग्रन्थों को पढ़ने पता
चलता है कि श्रुत ज्ञान को सुरक्षित रखने की भावना तीव्र होने से शास्त्र और उनकी
टीकाएँ बहुत सावधानी पूर्वक लिखी गयी। जिस विषय की जानकारी नहीं थी उसके बारे में
अपनी ओर से कुछ नहीं बताया गया। उदाहरण के लिये ६ द्रव्यों में २ द्रव्य हैं
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जिनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है। धर्मास्तिकाय
गति में सहायक होता है जैसे मछली को पानी और अधर्मास्तिकाय स्थिति को सहायक होता
है जैसे पथिक को वृक्ष की छाँह। सभी ग्रंथों में इनको इसी तरह समझाया गया, यहाँ तक
कि उदाहरण भी वही का वही दिया गया है ।
१२.
यही बात धवला ग्रंथों में
भी देखी जाती है जहाँ आचार्य वीरसेन एक ही विषय पर दो विरुद्ध मत प्रस्तुत करते
हुए कहते हैं कि चूँकि हममें केवल ज्ञान नहीं है इसीलिये हम निर्णय नहीं कर सकते
कि कौन सा मत सही है इसीलिये हमको दोनों मतों का संग्रह करना चाहिये।
१३.
इन बातों से श्रुतज्ञान के
बिना कुछ भी विक्षिप्त हुए हमको प्राप्त होने की बात दृढ़ होती है। जबकि अन्य मतों
में देखा जा सकता है कि समयानुसार शास्त्रों में परिवर्तन किये जाते रहे हैं, जहाँ
धर्म का स्वरूप सामाजिक और राजनीतिक जरूरतों के अनुसार बदलता रहता है। जबकि जैन
धर्म में जरूरतों के अनुसार बदलने के बजाए दृढ़ता पूर्वक उसी धर्म के पालन पर जोर दिया
जो शास्त्र में पहले से लिखा गया है।
१४.
जैन धर्म में यह माना गया
है कि भले ही पंचम काल में नियमों का पालन संभव ना हो पर उनके लिये धर्म के स्वरूप
में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता क्योंकि धर्म तो वस्तु का स्वरूप है जो हमेशा एक सा
रहेगा जैसे मोक्ष का स्वरूप नहीं बदल सकता । जो हिंसा चौथे काल में मानी गयी वही
पंचम काल में भी हिंसा मानी जायेगी। इसी तरह जो चौथे काल में परिग्रह कहा गया वही
इस काल में भी परिग्रह होगा।
१५.
इस कारण से ही श्रुतज्ञान
का महत्व बढ़ जाता है क्योंकि कुछ शिथिलाचारी लोग काल का प्रभाव कह कर शिथलीकरण को
धर्म कह कर मनवाना चाहते हैं तो ऐसे समय में शास्त्र ही हमारी शरण होते हैं
क्योंकि उसी से सही मार्ग की जानकारी प्राप्त होती है ।
१६.
इस प्रकार कुमार्ग से बचने
के लिये जनसाधारण को आवश्यक है कि श्रुतज्ञान का भली भाँति अभ्यास करे ताकि स्वयं
को किसी प्रकार का धोखा न हो ।क्योंकि गलतियों का फ़ल स्वयं अपने ही परिणामों की
दुर्दशा है, अन्य की गति तो वह जाने। सही मार्ग पर चलकर हमें अपने परिणाम शुध्द
करने हैं ।
१७.
हमारे सौभाग्य से
श्रुतज्ञान का एक अंश मात्र ही शेष रहने पर भी, बहुत गम्भीर , संपूर्ण और विस्तृत
रूप से शास्त्र उपलब्ध हैं जो हमारी प्रत्येक समस्या का उत्तर प्रदान करते हैं। इस
लिये शास्त्र वाँचन करके हमें स्वयं अपना मार्ग निर्धारित करना चाहिये।
१८.
शास्त्रों में स्वयं ३६३
प्रकार के विरोधी मतों की चर्चा आती है इसलिये कोई आश्चर्य नहीं कि विभिन्न प्रकार
के मत आज के समय में भी चलते हैं। क्या भगवान महावीर के समय में दूसरे मत नहीं थे
?
१९.
अंत में नियमसार की गाथा
१५६ में कहे आचार्य कुंदकुंद के कथन के उध्दरण से बात समाप्त करते हैं |
“ "नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धि हैं, इसलिये स्व समयों और पर समयों के साथ वाद विवाद वर्जने योग्य है।“
“ "नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धि हैं, इसलिये स्व समयों और पर समयों के साथ वाद विवाद वर्जने योग्य है।“
भावार्थ: जगत में जीव उनके
कर्म, उनकी लब्धियाँ अनेक प्रकार की हैं। इसलिये सर्व जीव समान विचारों के होना
असम्भव है। इसलिये परजीवों को समझादेने की आकुलता करना योग्य नहीं है।
स्वात्मावलंबनरूप निज हित में प्रमाद न हो इस प्रकार रहना ही कर्तव्य है।