वैसे तो यह फ़िल्मी गाने की
लाइन है किन्तु यदि इसे हम धर्म की भावना से देखें तो इसका अर्थ बदल जाता है और बहुत
सुंदर, मार्मिक और अनुकरणीय हो जाता है।
विभिन्न ज्ञानियोँ ने भी इसी प्रकार की भावना की अभिव्यक्ति की है जो पठनीय है ।
गीतकार ने तो शायद इस भाव
से नहीं लिखा होगा। उसने तो उस फिल्म में नायक द्वारा खलनायक को बुराई के मार्ग को
छोड़ कर अच्छाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करते हुए कहा है –
“ आ अब लौट चलें ।
नैन बिछाये बाहें पसारे
तुझको पुकारे देश तेरा । “
इसी पंक्ति को अब जैन धर्म
की भावना से देखते हैं:
यहाँ लौट के आने का संदेश
अज्ञानी मिथ्यदृष्टि जीव को दिया जा रहा है जो अनंत काल से पंच परावर्तनों में भटक
रहा है। उसको कवि कहता है कि कब तक यूँ ही भटकता रहेगा ? क्यों इस तरह परदेश में
पड़ा हुआ है? विभावों में रह कर तुझे अपने स्वभाव की भी खबर नहीं। तेरा स्वदेश तो तेरा
आत्मा है जो तेरे अपने में ही वापस आने की राह देख रहा है। कब से ? अनादि काल से
नैन बिछाये तेरे इन्तज़ार में बैठा है कि कब अपने घर वापस आयेगा। आत्मा का घर आत्मा
ही है जबकि अनादि से पर भावों में डूबा हुआ काम, क्रोध, माया, मान, लोभ आदि के
भावों में चक्कर काट रहा है। पर वस्तु को अपना ही मानता रहा है जैसे स्त्री,
पुत्र, मकान, दुकान इत्यादि। नश्वर शरीर को भी अपना मान कर उसकी देख भाल करता रहा
है किंतु अपनी आत्मा को ही अपना कभी नहीं जाना। फलस्वरूप कभी आत्मिक सुख का अनुभव
किया नहीं और संसार के कर्मोदय जन्य सुख दुख में ही अपने को सुखी दुखी मानता रहा
है जबकि ये तो भ्रमजन्य हैं और वास्तविक नहीं हैं। वास्तविक आत्मा का सुख तो
अतींद्रिय सुख है जिसके सामने ये संसारिक सुख भी दुख ही हैं। एक बार तू अपने आत्मा
के भीतर जा के अपने स्वभाव का अनुभव तो कर फिर तू वापस नहीं जायेगा।
यही भाव आचार्य अमृतचन्द्र
समयसार की टीका में निर्जरा अधिकार के १३८वें कलश में व्यक्त करते हैं जो इस
प्रकार है-
“हे अंध प्राणियों! अनादि
संसार से लेकर रागी जीव सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं वह पद अपद है,
अपद है, ऐसा तुम समझो। इस ओर आओ, इस ओर आओ ; तुम्हारा पद यह है – यह है जहाँ शुध्द
शुध्द चैतन्य धातु निज रस की अतिशयता के कारण स्थायीभावत्व को प्राप्त है ।“
भावार्थ : श्री गुरु
करुणापूर्वक अनादि से रागों में डूबे हुए प्राणियों को सम्बोधित करके कहते हैं कि
हे अंधे प्राणियों ! जिस पद या स्थान में तुम सो रहे हो वह तुम्हारा स्थान नहीं
है, नहीं है ( पुनुरुक्ति कर के अपनी करुणा की अभिव्यक्ति करते हैं ) तुम यहाँ आओ,
यहाँ आओ, तुम्हारा स्थान यहाँ है शुध्द चैतन्य मय है जो अन्य द्रव्यों से पूरी तरह
रहित, विकार रहित आनंदमय है। शाश्वत है। तुम यहाँ स्थान करो।
इस तरह हम देखते हैं कि
आचार्य अमृतचंद्र भी अनादि के भटके हुए जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि
तुम कहाँ परदेश में पड़े हुए हो तेरा देश तेरा इंतज़ार कर रहा है जो अनंत सुखमय है।
यही बात हमें बहेनश्री के
वचनामृत ४०१ में बहुत स्पष्ट शब्दों में देखने मिलती है –
“ यह विभाव देश हमारा देश
नहीं है। इस परदेश में हम कहाँ आ पहुँचे ? हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता। यहाँ हमारा
कोई नहीं है ।“
उन्होंने स्पष्ट कहा है कि
यह विभाव रूप – शरीर रूप देश हमारा नहीं है जहाँ जीव रागों में डूबा हुआ अपने को
भूला हुआ समय बिता रहा है। हमारा स्वदेश तो अनंत ज्ञान, श्रध्दा, चारित्र, आनन्द, वीर्यादि अनंत
गुण रूप है।
इसी प्रकार के विचार ह्म श्री निहालचंद्र सोगानी जी के
पत्रों में देखते हैं जहाँ वे गुरुदेव कांजी स्वामी के सत्संग के बिना रह्ने पर
अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के तौर पर देखिये पत्रांक ४:
“ यह कह्ना व्यर्थ है कि अंतरंग में, यहाँ होते हुए भी मुझे
वहाँ की स्मृतियाँ , ऐसा कोई दिन न होगा कि नहीं आती रहती होवे। पूज्य गुरुदेव की
स्मृति इस समय भी आ रही है व आँखों में गर्म आँसू आ रहे हैं कि उनके संग रहना नहीं
हो रहा है।“
यहाँ पर गुरु के बिना रहने पर अपनी मजबूरी और व्यथा की
अभिव्यक्ति करते हैं क्योंकि उनके सानिध्य में जो धार्मिक सत्संग मिलता था उसके
बिना यहाँ विषम वातावरण में रहना पडता है। गुरुदेव की अनुभव रस से भीगी वाणी में
भीग कर जो आनंद प्राप्त होता है वह कलकत्ता में गृहस्थी की उपाधियों से घिरे हुए
होने से उन्हें अत्यंत दुख देता है। इस प्रकार वे गुरु के चरणों में ही रह्ने की
भावना व्यक्त करते हैं क्योंकि उसमें ही आत्मिक सुख की विशेष प्राप्ति होती है।
इस पंचम काल में चूंकि हमें केवली भगवान के समोशरण और उनकी
दिव्य देशना की प्राप्ति नहीं है , उस स्थिति में सत्संग ही धर्म की प्राप्ति का
उपाय है इसीलिये गुरुओं ने धर्मी जनों के सत्संग में ही रहने का उपदेश दिया है। इस
भाव को श्रीमद राजचंद्रजी भी अपने पत्रांक ३७६ में कुछ इस प्रकार लिखते हैं: “ जिस
भाव से संसार की उत्पत्ति होती है , वह भाव जिनका निवृत्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी
भी बाह्य प्रवृत्ति की निवृत्ति और सत्समागम में रहना चाहते हैं। “ इसी से ज्ञात हो जाता है कि धर्म की प्राप्ति
का उपाय अपनी आत्मा में रहना है और जब वह ना हो सके तो सत्संग में रहना है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि
“ आ अब लौट चलें” गीत में बहुत मार्मिक संदेश भरा हुआ है जो कहता है कि
अपने आत्मा में लौट चलें क्योकि वही हमारा स्थान है। व्यवहारिक प्रवृत्ति के लिये
गुरु का सानिध्य या सतसंग ही श्रेष्ठ है, अन्य कोई स्थान ठहरने योग्य नहीं है।
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