बार बार घूमफ़िर कर फ़िर वही
प्रश्न लोगों के दिमाग में आ जाता है कि यदि जीव का स्वभाव जानना और देखना है, तथा अतीन्द्रिय सुखमय रहना
है तो फ़िर ऐसी कौन सी शक्ति है जो जीव को राग द्वेष करने को प्रेरित करती है और
संसार परिभ्रमण कराती है ।
जैन आचार्यों ने इस प्रश्न
का उत्तर बहुत विस्तार से अनेक ग्रंथों में दिया है जिसका निष्कर्ष कुछ इस प्रकार
है-
अनादि काल से जीव ज्ञान
स्वभावी होने पर भी कर्म बंध अवस्था में संसार में रहता है। यदि ऐसा ना हो तो सभी
जीव सिध्द ही हों और संसार ही ना हो। पर ऐसा तो है नहीं। ऐसा भी नहीं कि संसार की
रचना किसी विशिष्ट समय पर प्रारंभ हुई हो। जैनों में संसार को अनादि माना है तथा
जीव भी अनादि से हैं। यदि हम किसी अनादि जीव की कल्पना करें तो वह उत्पन्न होने के
बाद अपने को सशरीर ही पाता है जो १४ प्रकार के जीव स्थानों में से किसी भी प्रकार
का हो सकता है- एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय , पर्याप्त से अपर्याप्त। किंतु कुछ न
कुछ ज्ञान सहित है क्योंकि चेतन है, जड़ नहीं। उसके साथ आठ प्रकार के कर्म भी अनादि
से चले आ रहे हैं जो समयानुसार उदय को प्राप्त विभिन्न प्रकार के परिणाम उसे देते
रहते हैं। इन्हीं में से एक कर्म है मिथ्यात्व जिसके कारण जीव प्रत्येक समय अपने
स्वभाव को भूल कर स्वयं को शरीर प्रमाण संसारी जीव समझता है तथा संसारिक सुख दुख
में डूबा हुआ समय व्यतीत करता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मिथ्यात्व कर्म का उदय
जीव को स्वभाव भूलने को बाध्य करते हैं। क्योंकि यदि ऐसा ही हो तो जीव को अपने
स्वभाव की प्राप्ति तीन काल में संभव नहीं हो। कर्म का उदय तो निमित्त मात्र होते
हैं और जीव स्वयं अपने परिणाम इस प्रकार करता है क्योंकि उसकी दृष्टि अपने स्वभाव
पर न हो कर वर्तमान पर्याय- अवस्था पर रहती है। यहीं पर जीव की वैभाविकी शक्ति
कार्यरत होती है।
वैभाविकी शक्ति का अर्थ है
विशेष भाव वाली शक्ति। यह संसार में जीव तथा पुद्गलों दोनों के पास होती है किंतु
विश्व के अन्य चार द्रव्यों के पास नहीं है क्योंकि वे हमेशा शुध्द अवस्था में ही
पाये जाते हैं।
वैभाविकी शक्ति के निमित्त
से जीव तथा पुद्गलों का विभाव रूप परिणमन होता है जैसे अग्नि के सम्पर्क में पानी
का गर्म होना। गर्म होना पानी का स्वभाव नहीं है किंतु वैभाविकी परिणमन है जिसमें
निमित्त अग्नि का सम्पर्क है। अग्नि का सम्पर्क छूटते ही पानी स्वयं शीतल हो
स्वभाव को प्राप्त हो जाता है। कुछ इसी तरह से जीव के कर्मोदय अवस्था में परिणाम
होते हैं । मिथ्यात्व के उदय में शरीर को ही जीव मानता है तथा स्त्री, पुत्रादि को
अपने संबंधी और मकान दुकान को अपनी संपत्ति। वास्तव में तो ये जीव के कुछ भी नहीं
हैं क्योंकि जीव तो अमूर्तिक ज्ञान स्वभावी है पर उसकी दृष्टि – उसकी श्रध्दा अपनी
अवस्था पर है और उन्हीं परिणामों की उसे चिन्ता है। ऐसा क्यों ?
यही विभाव शक्ति का कार्य
है जो अनादि से जीव को वैभाविकी परिणमन के लिये प्रेरित करती है जिसमें कर्मोदय
निमित्त है। यदि जीव अपनी दृष्टि अपने स्वभाव को जानकर समझ कर अपने द्रव्य स्वभाव
पर रखे तो कोई कारण नहीं है कि ऐसे परिणाम हों। यह बात अलग है कि पूर्व में बाँधे
कर्मों के उदय को तो भोगना ही पड़ेगा परंतु वे परिणाम भविष्य के बंध के कारण नहीं
होंगे। अर्थात जीव शुध्दतर होता चला जायेगा और एक समय ऐसा आयेगा जब वह कर्मों के
संयोग से रहित अर्थात सिध्द होगा। उस समय चूँकि किसी कर्म का उदय निमित्त नहीं है
तब यही वैभाविकी शक्ति स्वभाविकी हो जायेगी अर्थात स्वभाव रूप परिणमन करेगी। इस
प्रकार हम देखते हैं कि एक ही शक्ति के दो प्रकार के परिणाम होते हैं। संसार
अवस्था में वैभाविक रूप परिणमन क्योंकि कर्मॊं का उदय निमित्त है और जीव की दृष्टि
अपनी अवस्था पर है तथा सिध्द अवस्था में स्वभाव रूप परिणमन क्यॊंकि कर्मॊ का बंध नहीं है और जीव अपने स्वभाव में
ही लीन है। यह विषय पंचध्यायी ग्रंथ में विस्तार से वर्णित है।
यही बात समयसार की कलशटीका
में आचार्य अमृतचंद्र दूसरी तरह से कहते हैं कि कर्तृत्व और भोक्तृत्व आत्मा का
स्वभाव नहीं है, वह अज्ञान से ही कर्ता है। अज्ञान का अभाव होने पर अकर्ता है। जीव
पर द्रव्य और परभावों का अकर्ता है तथापि कर्म प्रकृतियों के साथ बंध होता है , यह
वास्तव में अज्ञान की कोई गहिन महिमा है । इस प्रकार जीव वैभाविकी परिणामों को ही
स्वपरिणाम मानता रहता है यही अज्ञान है। इसी कारण राग द्वेष करता है , क्रोध माया
मान लोभ में डूबा रहता है तथा संसारिक सुखों की प्राप्ति व दुखों के निवारण के
लिये प्रयत्न करता रहता है। इसी कारण आगामी
कर्मों का बन्ध होता है जो भविष्य में उदय को प्राप्त होकर जीव को अनेक
प्रकार के परिणाम देते हैं।
समयसार में जीव की ४७
शक्तियों का वर्णन है किंतु उनमें वैभाविक शक्ति का कथन नही आता क्योंकि वहाँ
शुध्द जीव की अपेक्षा जीव की शक्तियोँ का वर्णन किया है। द्रव्य में ऐसी कोई शक्ति
नहीं जो वैभाविक परिणमन करे किंतु यह कार्य पर्याय में संभव है , जैसे पानी की
पर्याय गर्म होती है परंतु पानी किसी भी प्रकार स्वभाव से गर्म नहीं होता। यहाँ
पर्याय द्रव्य की होते हुए भी स्वतंत्र रूप से वैभाविक परिणमन कर रही है। यही
पर्याय की स्वतंत्रता है।
यह वैभाविक परिणाम दृष्टि
की विपरीतता और कर्मों के उदय के निमित्त से होते हैं। जैसे किसी मनुष्य को स्वर्ण
का हार पड़ा देखकर लोभ के परिणाम उत्पन्न
होते हैं। इसमें उसके लोभ कर्म के उदय के निमित्त से उस प्रकार के परिणाम हुए।
परंतु कोई कुत्ता उसी हार को सूँघ कर खाने योग्य नहीं जानकर छोड़ देता है। उसे कोई
लोभ परिणाम नहीं होते और न ही उसके उस प्रकार के कर्मों का उदय है। स्वभाव अपेक्षा
दोनों जीव हैं परंतु परिणाम अपेक्षा दोनों में अंतर है। इस प्रकार वैभाविकी शक्ति
और कर्मोदय का संयोग संसार अवस्था में विभिन्न प्रकार के परिणामों की प्राप्ति
कराता है। अब कोई मुनि चलते हुए उसी हार को देखेंगे तो धूल समान जान
कर छोड़ देंगे। उनको मिथ्यात्व नहीं है इसीलिये उन्होंने उस हार को पुद्गल जाना तथा
आत्मा के कार्य के लिये व्यर्थ जाना। न ही उनको लोभ परिणाम हुए। इसीलिये वैभविकी
शक्ति ने कार्य नहीं किया और विभाव परिणाम भी नहीं हुए।
इस प्रकार पर द्रव्य के आश्रय से किया गया परिणाम ही वैभाविक
शक्ति की सफलता है अर्थात फल प्रदान करने का कार्य है जबकि पर द्रव्य से उदासीन जीव
को वैभाविक शक्ति परिणाम रहित होने से निष्फल है।
सम्मानीय भाईसाहब,
ReplyDeleteजय जिनेन्द्र भगवान की.
जीव की वैभाविकी शक्ति पर जिन आगम के आधार से लिखा गया आलेख मार्ग दर्शनीय है.
मैंने इसे अपने साथी मुमुक्षु भाइयों से व्हाट्स एप्प पर शेयर किया है.
अगर द्वारा हिन्दी में लिखे मुझसे मेरे व्हाट्स एप्प नम्बर 79 99 72 30 56 पर शेयर कर सकते हैं.
मैं इन्हें पढने के बाद अन्य साधर्मियों के स्वाध्याय हेतु शेयर कर दूंगा.
धन्यवाद,
डा. विपिन कुमार जैन
भोपाल
कृपया सुधार कर पढ़े, "अगर आपके द्वारा हिन्दी भाषा में लिखे गये लेख आप मुझसे मेरे व्हाट्स एप्प नम्बर 79 99 72 30 56 पर शेयर कर सकते हैं तो मैं इन्हें पढने के बाद अन्य साधर्मियों के स्वाध्याय हेतु शेयर कर दूंगा".
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