Monday, July 24, 2017

जैन धर्म में स्थापना का महत्व

किसी भी अनजानी वस्तु को जानने के लिये उस वस्तु के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जाना जाता है जिसे निक्षेप कहते हैं। किसी दूसरे पदार्थ को उसी वस्तु के नाम से पुकारना कि “ वह यह है”, इसको स्थापना कह्ते हैं। स्थापना दो प्रकार से होती है- तदाकार या सदभाव स्थापना और दूसरी अतदाकार या असदभाव स्थापना। पहली में दूसरे पदार्थ का आकार उस धारण की हुई वस्तु के समान रहता है जैसे चित्र, मूर्ति इत्यादि। दूसरी में पदार्थ का आकार उस नाम धारण की हुई वस्तु के समान नहीं रहता है जैसे शतरंज में राजा, मंत्री, हाथी आदि नाम के मुहरे। पूजा के लिये चावल आदि से चिन्ह बनाकर भगवान की अतदाकार स्थापना की जाती है, तथा मंदिरों में मूर्तियों की तदाकार स्थापना करते हैं।

जब हम कहते हैं कि “ जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार हो” तब जिनेन्द्र भगवान के स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान से परिणत जीव उपयुक्त भाव जिन हैं तथा जिनेन्द्र भगवान की पर्याय से परिणत जीव तत्परिणत भाव जिन हैं। इस प्रकार इस नमस्कार में तत्परिणत भाव जिन और स्थापना जिन को यह  नमस्कार किया गया है ( धवला भाग ९)। धवला में ही यह प्रश्न पूछा गया है कि जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करना तो ठीक है क्योंकि उनमें देवत्व है किंतु जिनेन्द्र के गुणों से रहित स्थापना को नमस्कार करना ठीक नहीं है? इसके उत्तर में कह्ते हैं कि पाप के विनाशक जिनेन्द्र भगवान नहीं हैं क्योंकि वे तो वीतरागी हैं। किंतु जिनपरिणत भाव और जिन गुण परिणाम पाप के विनाशक हैं जिससे कर्मों का क्षय होता है। वह जिन गुण परिणाम भान जिनेन्द्र के समान अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य, विरति, और सम्यक्त्वादि गुणों के भावों से एकता को प्राप्त हुई स्थापना से भी होता है। अर्थात जिस मूर्ति में जिनेन्द्र की स्थापना की है , उसको नमस्कार करना भी पाप का विनाशक है।

इस प्रकार हम देखते है कि स्थापना द्वारा तदाकार या अतदाकार रूप से जिनेन्द्र भगवान के गुणों को ही स्मरण करके हम अपने ही भावों की शुध्दि करके अपने ही कर्मों का क्षय करते हैं।
इन्हीं भावों को कुंदकुंदाचार्य समयसार की पहली ही गाथा में इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं-

“ ध्रुव अचल और अनुपम – इन तीन विशेषणों से युक्त गति को प्राप्त हुए सर्व सिध्दों को नमस्कार करके अहो! श्रुतकेवलियों द्वारा कथित यह समयसार नामक प्राभृत कहूँगा।”

नमस्कार दो प्रकार का होता है। पहला द्रव्य नमस्कार जो विकल्पात्मक या वचनात्मक है। दूसरा भाव नमस्कार जिसमें मैं आराधक और मैं ही आराध्य। आत्मा के शुध्द स्वरूप को ध्येय में लेकर वर्तमान मेरी ध्यान की दशा उसी ध्येय समान हो, उसका नाम भाव स्तुति है। यहाँ पर आत्मा में सिध्दों को स्थापित किया गया है। जब मेहमान घर आते है तो उनका अच्छे आसन भोजन से स्वागत करते हैं। यहाँ तो भगवान को आत्मा में ही स्थापित किया गया है, ताकि हमारी दृष्टि द्रव्य ऊपर ही ढल जाये। अनंत सिध्दों को पर्याय में स्थापित करके समयसार ग्रंथ सुनने की पात्रता योग्य बनाया है। यहाँ अपनी और श्रोताओं दोनों की आत्मा में सिध्दों को स्थापित किया है, ताकि उनके गुणों के ल़क्ष्य के द्वारा हम उन्हीं के समान हो जायें।

इस प्रकार तदाकार या अतदाकार स्थापना का उद्देश्य पूजा करने वाले की आत्मा में उनके गुणों के स्मरण से जिनेन्द्र भगवान को स्थापित करना है। यह जानकर जो यह समझते हैं कि भगवान की मूर्ति को नमस्कार करने मात्र से कर्मों का क्षय होगा या धन सम्पत्ति आदि सुखों की प्राप्ति होगी, वे अपनी भूल सुधार कर लें, क्योंकि जैन धर्म में वीतरागी भगवान कुछ भी नहीं देते। हम उनका प्रतिबिम्ब अपनी आत्मा में स्थापित कर उनके जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं।


अब इसी स्थापना के अनुशीलन से हम यह भी जान सकते हैं कि भगवान की मूर्ति का स्वरूप किस प्रकार का होना चाहिये। उन्हें तो ध्येय रूप से आत्मा में स्थापित करना है तो क्या वह मूर्ति रागादि के विकल्प रूप हो सकती है ? या कोई काम , क्रोध, संहार आदि भावों को उत्पन्न करने वाली हो सकती है? वह तो वीतरागी , ध्रुव, अचल, और अनुपम रूप ही हो सकती है जो सिध्द समान ही है। इस अनुशीलन से यह भी सिध्द होता है कि अन्य मतों में प्रवर्तमान मूर्ति पूजा किस सीमा तक अनुमोदन करने योग्य है और उस पूजा से किस प्रकार के उद्देश्य की ही पूर्ति हो सकती है।

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